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जोत सिंह बिष्ट का दांव, अपनी गणना अपने गांव

Calculate it in your village
Written by Subodh Bhatt

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दिनेश शास्त्री

देहरादून। पहाड़ के सरोकारों के प्रति बेहद संवेदनशील भाजपा नेता जोत सिंह बिष्ट ने अपनी गणना अपने गांव अभियान शुरू कर प्रवास में रह रहे पहाड़ियों से जड़ों से जुड़ने का आह्वान किया है। इसके लिए वे निरन्तर लोगों से संवाद कर रहे हैं और लोग उनकी बात सुन भी रहे हैं। इधर भारत निर्वाचन आयोग ने मतदाता सूचियों का गहन पुनरीक्षण करने का अभियान शुरू किया है तो ऐसे में जोत सिंह बिष्ट के अभियान की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ गई है।

पहाड़ से पानी की तरह जवानी भी प्रथम विश्व युद्ध के बाद से मैदान की ओर बहती रही है और उत्तराखंड पृथक राज्य बनने के बाद उसकी रफ्तार भी तेज हुई है। जिन गांवों में पहले सड़क नहीं थी, वहां लोग किसी तरह जद्दोजहद करते हुए टिके हुए थे लेकिन प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना से गांव जुड़े तो वे सड़कें लोगों को भी अपने साथ ले आई। नतीजा यह हुआ कि पहले परिसीमन जो वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर हुआ था, उसमें पहाड़ की आधा दर्जन विधानसभा सीटें घट गई थी। कायदे से उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड इसी बात पर अलग हुआ था कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियां अत्यंत जटिल हैं, लिहाजा मैदान के हिसाब से यहां के लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकती। जब उस आधार पर राज्य का पुनर्गठन हुआ तो जाहिर है पैमाना पूर्वोत्तर राज्यों की तरह भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विधानसभा सीटों का निर्धारण होना चाहिए था, किन्तु इस बात का न परिसीमन आयोग ने ध्यान रखा और न लोगों ने ही।

अब वर्ष 2027 में जनगणना का काम पूरा होगा तो उसके बाद नए सिरे से परिसीमन भी होगा। उस समय अगर फिर आबादी के हिसाब से पहाड़ की सीटें घट गई तो पर्वतीय राज्य की अवधारणा तो खत्म ही हो जाएगी। जोत सिंह बिष्ट जी की यही चिंता भी है और इसी कारण वे घर घर दरवाजा खटखटा रहे हैं और पहाड़ियों को धै लगा रहे हैं कि बेशक मैदान में रहो लेकिन अपना वोट अपने गांव में दर्ज कराओ। उनका कहना है कि अपनी गणना अपने गांव में दर्ज कराने से ही मातृभूमि के ऋण से उऋण हो सकते हैं।
जोत सिंह बिष्ट हवा में तीर नहीं चलाते बल्कि आंकड़ों के साथ बात करते हैं।

वे बताते हैं कि 1971 की जनगणना के आधार पर उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों में से नौ पर्वतीय जिलों को 40 सीटें और मैदानी क्षेत्र के लिए 30 सीटें निर्धारित हुई थी लेकिन 2001 की जनगणना के आधार पर हुए परिसीमन वर्ष 2006 में हुए नए परिसीमन में पर्वतीय जिलों में विधानसभा की सीटें 40 से घट कर 34 हो गई जबकि मैदानी जिलों की सीटें बढ़ कर 36 हो गई। अब अगर महज जनसंख्या के आधार पर, जैसे कि वर्ष 2027 में जनगणना पूरी होने की संभावना है और उसके बाद परिसीमन का काम होगा तो पहाड़ से 34 के बजाय 25 विधायक ही चुने जाएंगे जबकि मैदान के विधायकों की संख्या बढ़ कर 45 हो जाएगी। यह सब घटती जनसंख्या का नतीजा होगा।

उस स्थिति में पर्वतीय राज्य का औचित्य ही खत्म हो जाएगा। पहाड़ का प्रतिनिधित्व घटने का सीधा अर्थ है देश की दूसरी रक्षा पंक्ति का कमजोर हो जाना। चूंकि हम दो देशों की सीमा से सटे होने के साथ सीमा प्रहरी भी हैं, ऐसे में सीमाओं से जनप्रतिनिधित्व कम होने के खतरे को आसानी से समझा जा सकता है। अपनी गणना अपने गांव में दर्ज कराने का अभियान इसी उद्देश्य से शुरू किया गया है।
स्वाभाविक रूप से जोत सिंह बिष्ट जी की चिंता को समझा जा सकता है और यह उनकी अकेली समस्या भी नहीं है बल्कि समूचे पर्वतीय क्षेत्र के जिम्मेदार और संजीदा लोगों की सांझी समस्या है। यह अलग बात है कि खास राजनीतिक फ्रेम में बंधे लोग इस दिशा में आगे नहीं आए।

इस हिसाब से जोत सिंह बिष्ट ने राजनीतिक फ्रेम की चिंता किए बगैर साहसिक अभियान शुरू किया है। लिहाजा मैदान में रह रहे लोगों को उनके आह्वान को तवज्जो देनी चाहिए कि बेशक किसी भी कारण से वे प्रवास में रह रहे हों किंतु अपना वोट गांव में ही दर्ज करवाना चाहिए। इससे पहाड़ के अस्तित्व की भी रक्षा होगी और प्रवास में रह रहे लोग अपनी जड़ों से भी जुड़े रहेंगे। वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव के बहाने ही लोग मातृभूमि से भेंट कर आयेंगे। यहां एक बात और कहने की है कि कुछ वर्ष पूर्व इगाश बग्वाल गांव में मनाने का आह्वान हुआ था और लोगों ने उस अपील पर अमल भी किया किंतु जब दिल्ली में इगाश मनाई गई तो लोगों को अफसोस भी हुआ। इस दृष्टि से जोत सिंह बिष्ट की अपील निरर्थक नहीं जाएगी।

उनका उद्देश्य पवित्र है और ध्येय पहाड़ की पीड़ा से मुक्ति तो उनके अभियान का स्वागत ही नहीं किया जाना चाहिए बल्कि खुले मन से समर्थन भी किया जाना चाहिए। जोत सिंह बिष्ट के अपनी गणना, अपने गांव अभियान में डॉ आर पी रतूड़ी, मथुरा दत्त जोशी, वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत, शीशपाल गुसाईं, पुष्कर सिंह नेगी और तमाम लोग जुड़े हुए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि पर्वतीय अस्मिता, संस्कृति, भूगोल और सीमाओं की रक्षा की खातिर लोग उन्हें मायूस नहीं करेंगे। वैसे भी जोत सिंह बिष्ट यह प्रयास अपने किसी निहित स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि पहाड़वासियों के दूरगामी वृहत्तर हित के लिए कर रहे हैं। ऐसे में तमाम प्रवासियों का यह नैतिक दायित्व भी बन जाता है कि आसन्न एस आई आर के मद्देनजर लोग अपना नाम अपने गांव की मतदाता सूची में दर्ज कराएं।

उन्होंने जोर देकर कहा है कि “उत्तराखंड तभी सच्चे अर्थों में मजबूत और समृद्ध बनेगा, जब उसका पहाड़ मजबूत होगा। पहाड़ की समस्याएं, पहाड़ की आकांक्षाएं और पहाड़ की आवाज विधानसभा में पूरी ताकत और गरिमा के साथ गूंजेगी। यदि पहाड़ कमजोर रहा, तो पूरा राज्य कमजोर रहेगा। यह लड़ाई पहाड़ के स्वाभिमान, उसके अस्तित्व और उसके भविष्य की लड़ाई है। हम सभी को एकजुट होकर इस अधिकार को हासिल करना होगा, क्योंकि पहाड़ उत्तराखंड की आत्मा है और उसकी अनदेखी राज्य के लिए घातक साबित होगी।”

जोत सिंह बिष्ट का यह अभियान पहाड़ी क्षेत्रों में लंबे समय से चली आ रही असंतुलन की भावना को मुखर करता है और राज्य की राजनीति में एक नए आंदोलन की शुरुआत का संकेत देता है।

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