कविता साहित्य

इन्साफ! ज्योत्स्ना शर्मा प्रदीप द्वारा रचित कविता

इन्साफ!
तुम कभी झाँकना
उस घर में
जहाँ जलता है दिया
लहू से
खाते हैं लोग
कटी -फटी
हथेली पर रखकर
रोटी के सूखे टुकड़े।

तुम कभी झाँकना
उन मासूमों की आँखों में,
जिन्हें ख़ुद पता नहीं
किस ममता का स्रोत
उनकी आँखों में
आँसू छोड़ गया
फुटपाथ के सख़्त
बिस्तर से
साँसें जोड़ गया!

झाँक कर
उस मुख को देखना
जो खिला था कभी
कली- सा
पर मुरझाया
टहनी से नुचते
पत्ते देखकर।

उन गलियों में भी
गश्त लगाना
जहाँ आदमी के नाखून
बन चुके हैं काँटें
कमसिन फूलों को,
पत्थरों की सभा में बाँटे।

उन बूढ़े होठों को तो
कभी न भूलना
जिन पर पीड़ा की
रेत जमी है
कुछ बूँदें
दिल से निकलकर
होठों पर थमी हैं।

वो घर कभी न भूलना
जहाँ सफ़ेद कपड़ों
में लिपटी,
कोई कली
पा गई शौर्य के चिह्न
अपने सिन्दूर के बदले,
पोंछती है गीले आँचल से
मगर….
नितान्त अकेली!!

ज्योत्स्ना शर्मा प्रदीप (देहरादून )

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