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आपको यह अधिकार किसने दिया

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भूपेंद्र कण्डारी

देहरादून। किसी भक्त को भगवान के दर्शन करने से रोकने का अधिकार किसके पास है और संविधान में यह व्यवस्था कहां पर है? केदारनाथ में जो शर्मनाक और घृणित कृत्य पंडे-पुरोहितों ने किया उनके इस कार्य के लिए भगवान शिव उन्हें कभी माफ नहीं करेंगे और अगर यह साजिश थी तो तो साजिश कर्ताओं के खिलाफ शासन प्रशासन को चाहिए कि वह सख्त कानूनी कार्यवाही करें। आपको यह अधिकार किसने दे दिया कि आप किसी भी व्यक्ति को भगवान के दर्शन या पूजा-अर्चना से रोकें? क्या कोई मंदिर किसी की बपौती हो सकती है? पंडे पुरोहितों न्निहित स्वार्थ के लिए ऐसा करते हैं तो उनके लिए यह बहुत ही शर्म की बात है।
पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के फैसलों मैं देवस्थानम बोर्ड की स्थापना प्रदेश हित में लिया गया फैसला है। पड़े पुरोहित बताएं कि आखिर, क्यों नही होना चाहिए देवस्थानम बोर्ड? अब तक जो मंदिर समिति वाली व्यवस्था थी, पंडे-पुरोहित बताएं उस व्यवस्था में स्वयं उनका हित छोड़ दें, तो आम श्रद्धालु के हितों के लिए पिछले कई दशकों में क्या किया गया? जम्मू कश्मीर में वैष्णो देवी यात्रा की व्यवस्था हो या फिर हिमाचल मैं मंदिरों की व्यवस्थाएं देख लें और उत्तराखंड मैं चार धाम यात्रा हो या फिर छोटे बड़े मंदिर। फर्क साफ नजर आएगा। सदियों से हर साल मंदिरों में लाखों करोड़ों रुपया एकत्रित होता है लेकिन अगर पूछा जाए कि कितने यात्री विश्राम गृह, धर्मशालाएं मंदिर समिति ने यात्रा मार्गों पर आजतक बनवाईं? यात्रा मार्गों पर कितने स्थानों पर वह यात्रियों के लिए अनवरत लंगर संचालित करती है, बताए? उत्तर देते नहीं बनेगा। बदरी-केदार की अरबों की जमीनें थीं, वे आज कहाँ हैं-किस हाल में हैं, पंडा-पुरोहित या मंदिर समिति के पैरोकार बताएं? पूरे कोविडकाल में तमाम धार्मिक संस्थाओं ने खुद को लोगों की सेवा में झोंक दिया था। मंदिर समिति के समर्थक और देवस्थानम बोर्ड के विरोधी बताएं कि कोविड काल मे समिति ने लोगों के लिए क्या किया? देवस्थानम बोर्ड से इतना तो होगा कि चढ़ावे का बड़ा भाग कुछ लोगों की जेबों में जाने के बजाय शायद यात्रा सुविधाओं और यात्रियों के हित में व्यय हो पाए। मंदिर समिति वाली व्यवस्था के बावजूद चारधाम यात्रा की सम्पूर्ण व्यवस्था हर साल सरकार को ही करनी पड़ती है। पंडे-पुजारियों का काम पूजा-अर्चना करवाना है, न कि किसी को दर्शन या पूजा-अर्चना से रोकना। विरोध में धरना-प्रदर्शन किया जा सकता है, लेकिन मंदिर को धरना-प्रदर्शन का अखाड़ा बनाए जाने और किसी को दर्शनों से रोके जाने की इस प्रवृत्ति को उत्तराखंड मैं मौन सहमति भी मिल जाए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य की बात क्या हो सकती है। शासन प्रशासन को चाहिए कि वह इस पूरे घटनाक्रम की जांच करें और इसमें जो भी दोषी हैं उनके खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई अमल में लाएं ताकि भविष्य में दोबारा कोई इस तरह की घटना की पुनरावृति न कर सके।

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