धार्मिक

गुरु पूर्णिमा अर्थात अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की यात्रा

Written by admin

गुरु पूर्णिमा

हर्षिता टाइम्स।
देहरादून 3 जुलाई। गुरु पूर्णिमा अर्थात अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर की और यात्रा और व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक स्वाभिमान जाग्रत कराने वाले परम् प्रेरक के लिये नम-दिवस । जो हमें अपने आत्मवोध, आत्मज्ञान और आत्म गौरव का भान कराकर हमारी क्षमता के अनुरूप जीवन यात्रा का मार्गदर्शन करें वे गुरु है। वे मनुष्य भी हो सकते हैं, और कोई प्रतीक भी ।

संसार में कोई अन्य प्राणी भी, ज्ञान दर्शन कराने वाला कोई दृश्य, कोई घटना, कोई ग्रंथ या ध्वज जैसा भी कोई प्रतीक हो सकता है। अपने ज्ञान दाता के प्रति आभार और उनके द्वारा दिये गये ज्ञान से स्वयं के साक्षात्कार करने की तिथि है गुरु पूर्णिमा। आषाढ़ माह की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने का भी एक रहस्य है । भारत में प्रत्येक तीज त्यौहार के लिये तिथि का निर्धारर्ण ाधारण नहीं होता, प्रत्येक तिथि का अपना संदेश होता है ।

गुरु पूर्णिमा की तिथि का भी एक संदेश है । इसका निर्धारण एक बड़े अनुसंधान का निष्कर्ष है। वर्ष में कुल बारह पूर्णिमाएँ आती हैं। इन सभी में केवल आषाढ़ की पूर्णिमा ऐसी है जिसमें चंद्रमा का शुभ्र प्रकाश धरती पर नहीं आ पाता या सबसे कम आता है। वर्षा के बादल चंद्रमा के प्रकाश का मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं।

एक प्रकार से चंद्रमा को ढंक लेते हैं। शुभ्र चंद्र-प्रकाश तो धरती पर आने का प्रयत्न तो करता है पर बादल अवरोध बन जाते हैं। यदि गुरु का संबंध केवल ज्ञान और प्रकाश से होता तो अश्विनी मास की शरद पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा माना जा सकता था । चूँकि इस पूर्णिमा को धरती पर आने वाला चन्द्र प्रकाश सबसे धवल और मोहक होता है। लेकिन इसके ठीक विपरीत आषाढ़ की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा माना गया ।

इसका संदेश ज्ञान पर आनी वाली भ्रान्तियों को दूर करना है । आषाढ़ की पूर्णिमा पर चन्द्र प्रकाश को रोकने वाले बादल स्थाई नहीं होते, वह अवरोध मौलिक नहीं होता, कृत्रिम होता है, अस्थाई होता है, जो समय के साथ छूट जाता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य की आँखो पर अज्ञान के बादल छाये रहते हैं।

भीतर आत्मा तो व परमात्मा का अंश है, जो ज्ञान और प्रकाश का पुंज है। पर मनुष्य का अज्ञान, अशिक्षा और भ्रांत धारणाओं की परतें में आत्मा को ढक लेती हैं। जिससे मनुष्य की प्रगति अवरुद्ध होने लगती है और उसके कुमार्ग पर चलने की आशंका हो जाती है ।

जिस प्रकार पवन देव बादलों को उड़ा ले जाते हैं धरती और चन्द्रमा के बीच का अवरोध समाप्त कर देते हैं, और शुभ्र चंद्र प्रकाश पृथ्वी की मोहक छवि को पुनः उभारने लगता है उसी प्रकार मनुष्य ज्ञान बुद्धि पर पड़े अवरोध स्वयं नहीं हटते, उन्हे हटाने के लिये कोई प्रयत्न चाहिए, कोई निमित्त चाहिए।

जो अज्ञान की परत का क्षय करके स्वज्ञान का भान करा सके। अज्ञान का हरण कर स्वज्ञान के इस जाग्रत कर्ता को ही गुरु कहा गया है । यह गुरु की विशेषता होती है कि अज्ञानता के अंधकार की ये सभी परतें हटा कर उसे उसके स्वत्व से साक्षात्कार कराता है।

मनुष्य की विशिष्ठता को नये आयाम, नयी ऊँचाइयाँ देने में मार्ग दर्शन करता है। आषाढ़ की पूर्णिमा इसी का प्रतीक है। शिक्षक और गुरु में अंतर गुरुत्व परंपरा में एक बात महत्वपूर्ण है। शिक्षक, आचार्य, गुरू और सद्गुरु में अंतर होता है । शिक्षक और आचार्य गुरु तुल्य तो होते हैं पर गुरु नहीं होते। एक तो शिक्षक अस्थाई होते हैं और वे केवल निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार चलते हैं।

शिक्षा और ज्ञान में अंतर है

शिक्षा केवल सैद्धांतिक होती है। यदि पाठ्यक्रम में कुछ असत्य है आधारहीन है तब भी शिक्षक उसी अनुसार अपना कार्य करते हैं। जबकि आचार्य इस पाठ्यक्रम में व्यवहारिक पक्ष को भी सम्मिलित कर व्यक्तित्व निर्माण पर भी ध्यान देते हैं। लेकिन गुरु इनसे बहुत आगे हैं। वे पहले शिष्य की प्राकृतिक प्रतिभा क्षमता रुचि का आकलन करते हैं, उसकी मौलिक प्रतिभा को जाग्रत करते है । फिर उसके अनुरूप पाठ्यक्रम का निर्धारण करते हैं।

युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तीनों थे तो एक ही कक्षा में पर गुरु द्रोणाचार्य ने तीनों को उनकी प्रतिभा और क्षमता के अनुरूप अलग-अलग अस्त्र शस्त्र में प्रवीण बनाया। गुरू सदैव अपने शिष्य की रुचि और. प्राकृतिक क्षमता को ध्यान में रखकर शिक्षा और ज्ञान दोनों का निर्धारण करता है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल चेहरे की बनावट, बोली, रुचि, पसंद नापसंद या डीएनए में ही अलग नहीं होता।

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