डॉ सुशील उपाध्याय, शिक्षक
दो दिन पहले उत्तराखंड के एक कैबिनेट मंत्री का बयान अखबारों में छपा कि उत्तराखंड में कोरोना के सबसे बुरे दौर पर नियंत्रण कर लिया गया है। लगभग ऐसा ही स्वर स्थानीय मीडिया में भी दिख रहा है कि अब प्रदेश में कोरोना के फैलाव और बीमारी के खतरे से लगभग पार पा लिया गया है। लेकिन इस अति सकारात्मक एप्रोच के सामने तथ्य दूसरी ही बात कहते दिख रहे हैं। यदि आबादी के अनुपात के संदर्भ में देखें तो अब भी उत्तराखंड में राष्ट्रीय औसत की तुलना में डेढ़ गुना मामले सामने आ रहे हैं। रोजाना होने वाली मौतों का आंकड़ा राष्ट्रीय औसत की तुलना में लगभग दो गुना है। तो क्या इतनी जल्दबाजी में यह घोषणा कर देनी चाहिए कि अब उत्तराखंड मे कोरोना को पराजित कर दिया है ?
ज्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं हैं। मई के मध्य में उत्तराखंड देश के उन राज्यों में शामिल था, जहां लोगों को एक अदद हॉस्पिटल बेड हासिल करने में पसीने छूट रहे थे। मंत्री महोदय का दावा है कि प्रदेश में एक महीने के भीतर अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं को कई गुना बढ़ा दिया है। वास्तव में, इस बात पर यकीन करके राहत की सांस ले लेनी चाहिए, लेकिन कोरोना की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह किसी भी दावे को बहुत जल्द शीर्षासन करा देने की ताकत रखता है। किसी भी जागरूक व्यक्ति के मन में यह प्रश्न आएगा कि क्या सच में एक महीने के भीतर प्रदेश में डॉक्टरों की संख्या में कई गुना बढ़ोतरी हुई या फिर नर्सो, पैरामेडिक स्टाफ का आंकड़ा भी कई गुना हो गया ? इसका जवाब ‘नहीं’ में है।
देश के जाने-माने चिकित्सक डॉ देवी शेट्टी का वह कथन याद रखना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा कि मरीजों का इलाज हॉस्पिटल नहीं करते, बल्कि डॉक्टर करते हैं। बीते दिनों में प्रदेश सरकार और स्वास्थ्य विभाग की तरफ से डॉक्टरों की भर्ती के लिए जो विज्ञापन आए हैं, उनमें कुछ में 3 महीने और कुछ में 11 महीने की नौकरी के ऑफर के साथ विज्ञापन निकाले गए हैं। अब सोचने वाली बात यह है कि कोरोना जैसी आपात स्थितियों में ऐसा कौन डॉक्टर होगा जो 3 महीने या 11 महीने के लिए नौकरी के लिए उत्तराखंड दौड़ा चला आएगा। यह सोच और कार्यपद्धति यकीनन चिंताजनक है। स्थानीय लोगों को पता है कि प्रदेश में नर्सों की भर्ती की प्रक्रिया रोक दी गई है साल 2020 में जिन डॉक्टरों का चयन स्थायी पदों पर किया गया था, उनमें से काफी डॉक्टरों ने अभी तक ज्वाइन नहीं किया है।
हाल ही में, कुमाऊं मंडल के एक जिले के उस उदाहरण ने सब को चिंता में डाल दिया, जहां मुख्यमंत्री की विजिट के समय आईसीयू को ओपन दिखाया गया और उनके जाते ही उस पर ताला जड़ दिया गया। जब पूरे मामले की जांच हुई तो पता चला कि उस अस्पताल में बीते दिसंबर से आईसीयू चलाने में सक्षम स्टाफ की प्रतीक्षा की जा रही है। यही स्थिति उत्तराखंड के आधे से ज्यादा जिलों की है, जहां आईसीयू तो बन गए हैं या बनने जा रहे हैं, लेकिन अभी तक स्टाफ मौजूद नहीं है। ऐसे आईसीयू होने न होने का कोई मतलब ही नहीं। पिछले एक महीने में देहरादून, ऋषिकेश और हरिद्वार के अस्पतालों पर जिस स्तर का दबाव रहा है, वह अपने आप में अभूतपूर्व था। डॉक्टरों, नर्सों और दूसरे मेडिकल स्टाफ को रोजाना 12 से 16 घंटे ड्यूटी करनी पड़ी है। तो क्या इससे यह साबित नहीं होता की मौजूदा स्टाफ को कम से कम दो गुना किए जाने की जरूरत है!
यूरोप में काम करने वाले कई मित्र बताते हैं कि वहां कुछ देशों में कोई डॉक्टर एक दिन में 10-12 से अधिक पेशेंट देखने के लिए अधिकृत नहीं होता। इसके पीछे यह दर्शन है कि हरेक डॉक्टर पर्याप्त समय लेते हुए अपनी पूरी योग्यता और क्षमता के साथ मरीज का इलाज करे। अब इसकी तुलना स्थानीय स्तर से कर लीजिए तो पता लगेगा कि यहां हरेक डॉक्टर रोजाना औसतन 100 मरीजों तक को देख रहा था। क्या यह मान लें कि हमारे डॉक्टर अतिरिक्त शारीरिक, मानसिक क्षमता वाले हैं या उन्हें भी कुछ बेहतर स्थितियों की आवश्यकता है!
संभव है कि मेरी सोच-समझ एक डरे हुए व्यक्ति की तरह की हो जो इतनी जल्दी खुश नहीं होना चाहता। पर, इसकी भी एक वाजिब वजह है। अब से दो महीने पहले के आंकड़े बार-बार सामने आ जते हैं। जिन आंकड़ों से लोग उस वक्त बुरी तरह डरे हुए थे, ठीक वही आंकड़े आज मई के आखिर में हैं। तो क्या इनसे खुश हो जाना चाहिए ? यकीनन, नहीं। और तब तो बिल्कुल खुश नहीं होना चाहिए, जब प्रदेश में दूरदराज के बहुत कम आबादी वाले गांवों में कुल आबादी के 15 से 20 फीसद लोग संक्रमित मिल रहे हों। भले ही यह संख्या बहुत बड़ी ना हो, लेकिन यह एक चिंताजनक फैलाव की तरफ इशारा जरूर करती है।
दुनिया भर के विशेषज्ञ और एक्सपर्ट लगातार कह रहे हैं कि तीसरी लहर का खतरा मौजूद है। अगर यह मान लें कि तीसरी लहर आने में अभी चार-छह महीने का वक्त लगेगा तो क्या इस अवधि में चिकित्सा सुविधाओं को ‘अप टू द मार्क’ करने और वैक्सीनेशन की गति बढ़ाई जाने की आवश्यकता नहीं है! माननीय मंत्री जी की भावना पर किसी को संदेह नहीं है, लेकिन क्या वे यह नहीं जानते होंगे कि उत्तराखंड में 20 दिन के भीतर वैक्सीनेशन की दर 54 हजार प्रतिदिन (11 मई) से घटकर 18 हजार (28 मई) प्रतिदिन पर आ गई है।
यदि इसी गति से वैक्सीनेशन हुआ तो इस साल के आखिर तक भी सभी पात्र लोगों को वैक्सीन लग पाना संभव नहीं होगा। जबकि यह माना जा रहा है कि कोरोना की तीसरी लहर से बचाव में सबसे बड़ी भूमिका वैक्सीनेटेड आबादी की और दूसरी बड़ी भूमिका बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की होगी। अभी दोनों पैमानों पर उत्तराखंड उस जगह पर नहीं है, जहां हम यह दावा कर सकें कि हमने कोरोना को पराजित कर दिया है। इसके साथ-साथ ब्लैक फंगस के खतरे को भी जरूर देखना चाहिए, जिसके संक्रमित उत्तराखंड में भी काफी तेजी से सामने आ रहे हैं। फिलहाल, दावे करने और कोरोना-विजय की खुशियां मनाने की बजाय सुविधाएं बढ़ाने और सावधानी रखने पर ध्यान दिया जाना ज्यादा बेहतर विकल्प है।