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Saturday, September 30, 2023
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वक्त हिसाब जरूर मांगेगा, जिम्मेदारी सरकारों की ही है।

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सुशील उपाध्याय की कलम से

बोलिये। इस वक्त बोलना जरूरी है। सही को सही और गलत को गलत बोलिए। बोलने के साथ लोगों की मदद भी कीजिए। जहां जिस रूप में कर सकते हैं, उस रूप में कीजिए। व्यवस्था तंत्र का हाल हमारे सामने है। उसमें तत्काल कोई बड़ा बदलाव हो सकेगा, इसकी संभावना कम ही है।
फिर भी, यह एक बड़ा अवसर है। जब हम समझ पाएं कि किन जगहों से और किन समूहों से हमें सही वक्त पर जरूरी मदद मिल पाई। आजकल एक विचार को सुनियोजित ढंग से फैलाया जा रहा है कि सरकारों के भरोसे मत रहिए। यह एक डरावना विचार है। जब एक नागरिक के तौर पर हम सभी ने खुद के कानूनी नियंत्रण, नियोजन, मार्गदर्शन, प्रेरण आदि का अधिकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत चुनी गई सरकारों (ये सरकारें किसी भी पार्टी की क्यों न हों) को दिया हुआ है तो फिर वे कौन लोग हैं जो कह रहे हैं कि सरकारों के भरोसे मत रहिए ? इस पर जरूर सोचा जाना चाहिए।
मेरे जैसे लाखों-करोड़ों लोग अपनी आय का एक सुनिश्चित हिस्सा सरकार को इनकम टैक्स के रूप में देते हैं। क्यों देते हैं ? ताकि हमें स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा और बुनियादी ढांचे के रूप में न्यूनतम सुविधाएं मिल सकें। तो फिर कोई भी सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे कैसे हट सकती है ? ठीक है कि किसी सरकार ने यह नहीं कहा कि हमारे भरोसे न रहें, लेकिन वो तबका कौन है, जो नियमित रूप से सोशल मीडिया माध्यमों, मुख्यधारा के मीडिया तथा अन्य सभा-संगोष्ठीयों के जरिए यह प्रचारित करने में जुटा है कि सरकारों के भरोसे न रहें।
लोगों को सलाह दी जा रही हैं कि खुद की जिम्मेदारी समझें। नागरिकों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराना और यदि वे कर्तव्यों-दायित्वों का पालन न करें तो कानूनी प्रावधानों के तहत कार्रवाई करना, यह भी सरकार की जिम्मेदारी है। देशभर के सरकारी अस्पताल हांफ रहे हैं। कहीं ऑक्सीजन नहीं है तो कहीं बेड नहीं है। कहीं डॉक्टर नहीं है तो कहीं बिजली नहीं है। यह किसकी जिम्मेदारी है ? क्या एक आम नागरिक के तौर पर इस संदर्भ में भी हम सरकारों के भरोसे न रहें ?
कोरोना की दूसरी लहर में यह बात एक बार फिर स्पष्ट हुई है कि इतने बड़े देश में यदि कोई व्यवस्था कायम रह सकती है, यदि लोगों की जिंदगी बचाई जा सकती हैं तो उसमें केंद्रीय भूमिका सरकारी सिस्टम की ही होगी। निजी क्षेत्र की कुछ भूमिका हो सकती है। सब कुछ निजी क्षेत्र को सौंप कर चैन से नहीं बैठा जा सकता। आप अपने आसपास के लोगों से पता कर सकते हैं कि कोरोना के इस चुनौतीपूर्ण समय में जिन्हें निजी अस्पतालों में इलाज कराना पड़ा है, उनकी आर्थिक स्थिति किस तरह से हिल गई है।
बहुत सारे उदाहरण ऐसे हैं जो प्राइवेट अस्पतालों से निकलकर सरकारी अस्पतालों में आने को मजबूर हुए हैं। इस वक्त हर तरफ न खत्म होने वाली लाइन लगी हुई हैं। अस्पतालों के बाहर के मंजर डरावने हैं। मेडिकल फैसिलिटी हासिल करने के लिए, हॉस्पिटल बेड के लिए, ऑक्सीजन के लिए और यहां तक कि श्मशान घाटों के बाहर भी लाइन हैं।
आप जरा भी संवेदनशील है तो इस स्थिति पर दहाड़े मार कर रो सकते हैं कि 22 लोगों की जान इसलिए चली जाती है कि अचानक ऑक्सीजन सप्लाई बंद हो जाती है। अब मौतों का आंकड़ा गिनना बहुत छोटी बात हो गई है। मरीजों की संख्या से पैदा होने वाला भय भी असर खो चुका है। इस वक्त में कम से कम बोलिए और अपनी बात कहिए। यह समय बीत जाएगा, लेकिन तब आपको इस बात का मलाल जरूर होगा कि आपने मुश्किल वक्त में सही को सही और गलत को गलत नहीं कहा।
और हाँ, उनकी मदद जरूर कीजिये, जिनकी कर सकते हैं। जो आपसे उम्मीद जोड़े हुए हैं। हम और सरकार की भूमिका तो नहीं निभा सकते, लेकिन थोड़ी-बहुत मदद जरूर कर सकते हैं।

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