लेख

हरीश कंडवाल मनखी की कलम से : हमारे पूर्वज पर्यावरण प्रेमी ही नही बल्कि दूरगामी परिणामों का भी था व्यवहारिक ज्ञान

Spread the love

आज का समय तकनीकि ज्ञान का है, समय एवं परिस्थतियों ने भौतिकता की ओर मानव को होड़ की दौड़ लगा दिया है, इस भौतिकतावाद का परिणाम है कि हम प्रकृति से दूर होते चले गये, हमें पता ही नहीं चला कि हम आदि मानव के वंशज हैं जो प्रकृति के साथ पले बड़े और विकसित हुए, लेकिन इतने अधिक विकसित हो गये कि प्रकृति के महत्व को भूल गये।

वर्तमान समय मे कोविड 19 ने मानव को प्रकृति की ओर लौटने का इशारा भी किया है। आज के इस भौतिकतावाद में हम प्रकृति या पर्यावरण के लिए एक दिन निकालते हैं, जिसे पर्यावरण दिवस के रूप मेें मनाते हैं। पर्यावरण दिवस के दिन बहुत सारे पेड़ लगते जरूर हैं, लेकिन उसमें कितने पनप पाते हैं, यह अगले साल के पर्यावरण दिवस पर भी कोई झांक कर नहीं देखता है। हम लोग अपने खेती और सग्वाड़े छोड़कर गमले पर आ गये हैं, जिसका नतीजा आज हमारे शरीर में आॅक्सीजन की कमी को परिलक्षित कर रहा है, और सब यही कह रहे है कि नेचरल की ओर लौटिए।

हमारे पूर्वज ना तो प्रमाणिक वैज्ञानिक थे और न ही उन्हें पर्यावरण दिवस मनाने का ज्ञान था, लेकिन उनको प्रकृति के महत्व का बड़ा ज्ञान था। हमारे पूर्वज जब वृद्धावस्था की ओर उनकी उम्र अग्रसर होने लगती थी तो वह अधिक से अधिक पेड़ लगाते थे। मुझे एक संस्मरण याद आता है जब मैं लगभग 12 साल का था तब हमारी बड़ी दादी एक दिन अपने आॅगन में संतरे के पेड़ को लगा रही थी, तब उनकी उम्र लगभग 70 साल के करीब रही होगी, मैने अज्ञानता में उन्हें कह दिया कि दादी आपकी उम्र तो काफी हो गयी है, जब यह पेड़ फल देगा तो आपको यह फल प्राप्त होगे। तब उन्होने मुझे बड़ा साधारण लेकिन गंभीर उत्तर दिया। उन्होेंने कहा नाती जैसे मेरी बूढी सास और ससुर ने या मेरे सास ससुर ने जो आम या अन्य फल के पेड़ लगाये तो क्या उन्होनें उनके फल खाये, लेकिन उनके लगाये पेड़ों के फल हमने और तुम लोग खा रहे हो, ऐसे ही मेरे लगाये इस संतरे के फल तुम और तुम्हारे बच्चे खायेगे, और तुम उनको बताओगे कि यह पेड़ दादी ने मेरे सामने लगाया था। यह पेड़ इंसान को मरने के बाद भी अमर बना देते हैं। उनका दिया ज्ञान आज समझ में आया।

ऐसे ही एक प्रंसग जब कण्डवाल भयात की तरफ से चूल्हा जलता रहे, पेट की आग बूझती रहे अभियान के तहत यमकेश्वर क्षेत्र के डांडामण्डल के गाॅवों में टीम के सदस्य के तौर पर मुझे इस मुहिम में भागीदार होने का सौभाग्य मिला। हम लोग गाॅव भ्रमण के दौरान देवराणा गाॅव के मंदिर चमलेश्वर महादेव के दर्शन हेतु गये तो वहाॅ पर मंदिर के प्रंागण में दो पीपल और एक आम का पेड़ जो दरख्त बन चुके हैं उनके छाॅव में बैठने का अवसर मिला। बातों ही बातों में मैने उस पेड़ के बारे में अपने साथ गये सबसे बयोवृद्ध सदस्य श्री नारायण दत्त कण्डवाल एवं श्री डी एन कंडवाल जी जोकि देवराना गाॅव के निवासी हैं, उन्होेंने बताया कि उनके पिताजी ने जी बताया करते थे कि यह पेड़ स्व शंकर दत्त के पिताजी स्व0 बामदेव ग्वाड़ी जी ने लगाये थे, जिनकी वर्तमान में छठवी पीढी गाॅव एवं अन्य शहरों में निवास कर रहीं है। उन्होंने यह पेड़ पानी के स्त्रोत के ऊपर इसलिए लगाये थे कि ताकि पीपल के जड़ों से पानी का रिसाव होता रहे और पानी कभी कम ना हो।

आज के दौर में जँहा यूकेलिप्टस, चीड़,स्प्रूस, आदि के पेड़ लगाकर इस धरती का पानी सोखने के लिये उगा दिया जबकि
हमारे देशज पेड़ जैसे आंवला, आम, अशोक, वट या बरगद, बेल, कनेर, केवड़ा, नीम, पीपल, गुलमोहर, बबूल, साल, कदंब, सागवान, बांस, बेर, महोगनी, चंदन, इमली, अर्जुन आदि पौधे देश की धरती के लिए बेहद लाभकारी हैं। ये न सिर्फ हवा को शुद्ध करते हैं बल्कि मिट्टी की उर्वरकता भी बढ़ाते हैं। इनकी गहरी जड़ें बारिश के पानी को धरती की गहराई तक ले जाती हैं, जिससे भूजल स्तर बढ़ता है। जीव-जंतुओं की प्रजातियां इन पेड़-पौधों में निवास करती हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र भी मजबूत होता है।

हमारे सनातन धर्म मे प्रकृति की पूजा जैसे बरगद पीपल आदि पेड़ो की पूजा का विधान इसीलिए रखा गया कि मानव स्वार्थ में आकर इन पेड़ों को न काटे। यह उनका दूरगामी सोच का ही तो नजरिया था।

पहले इसी कारण मंदिर और पानी के स्त्रोतों मे पीपल बरगद बांज आदि की पौध लगाई जाती थी ताकि दीर्घकाल तक यह सबको प्राणवायु देते रहे।
आज जहां पर्यावरण दिवस पर पेड़ लगाने का जो ढोंग होता है असल में वह प्रकृति प्रेमी नही बल्कि सोशल मीडिया पर तस्वीर उकेर कर खुद को प्रदर्शित करने का स्वांग मात्र होता है।
हमे अपने पूर्वजों पर गर्व करना चाहिए कि उन्होंने हमें अनमोल धरोहर संजोकर दी है, और आने वाली पीढ़ियों के लिये हमें भी उनके लिये इस धरोहर को ऐसे ही संजोकर सुपुर्द करना है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *