कविता

ज्योत्स्ना शर्मा प्रदीप द्वारा रचित बहुत सुंदर कविता ‘माहिया’

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हर्षिता टाइम्स।

माहिया

1
सोई आँखें मूँदें
छोड़ गई मन माँ
ग़म की अनगिन बूँदें ।
2
जो हमको समझाती
जिसने जनम दिया
इक दिन वो भी जाती !
3
बिन नींदों की रैना
तेरे जाने से
भरते रे घन-नैना ।
4
कैसी लाचारी थी
आँखों की पीड़ा
होठों न उतारी थी !
5
माँ जैसा कब कोई
तेरी छाँव तले
मीठी नींदें सोई ।
6
मुरझाई तुलसी है
तेरी छाँव नहीं
श्यामा भी झुलसी है ।
7
कुछ अपनों को लूटें
फ़ूलों की क्यारी
कुछ ज़हरीले बूटे ।
8
वो घर था माई का
जब वो छोड़ चली
घर है अब भाई का ।
9
मैका अब छूट गया
पावन नातों को
मौसम वो लूट गया !
10
अपने ही छलते हैं
बाती के पीछे
अँधियारे पलते हैं ।
11
कुछ ख़ास मुखौटे थे
आँखों की चिलमन
सोने के गोटे थे ।
12
वो प्यारा नग दे दो
छू लूँ पाँवों को
माँ के वो पग दे दो !

ज्योत्स्ना शर्मा प्रदीप (देहरादून/गुरुग्राम)

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