कवितासाहित्य

कविता ‘मशगूल’ हरीश कंडवाल मनखी की कलम से

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मशगूल

वो अपनी दुनिया में मशगूल हो गए
उनकी एक झलक देखने को बेताब हो गए
कभी घण्टो तक गुप्तगू होती थी उनसे
आज एक लफ्ज सुनने को तरस गए।

उन्होंने तरक्की की राह इख्तियार कर
अपनी मंजिल की ओर बढ़ते चले गए
हमने उनकी तरक्की को अपनी खुशी मान ली
वह अजीज होकर, भी हमारा मिजाज भूल गए।

वक्त का सिफर है या मुकद्दर का सितम
जिनसे दिल की बात कही,वो बेखबर हो गए
कभी गम कभी खुशी के गवाह थे हमारे
आज वही मरहम लगाना भूल गए।

खबर मिली कि वह आजकल बिजी हो गए
अपनी ही दुनिया मे वह कही खो गए
कहते हैं कि उनको वक़्त नही मिलता
मिलना तो दूर, फोन पर बात करना भूल गए।

©®@हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।

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