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Saturday, September 30, 2023
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महामारी के साये में निपटा कुंभ : डॉ. सुशील उपाध्याय

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डॉ. सुशील उपाध्याय


गंगा सप्तमी पर अखाड़ों से धर्मध्वजा उतारे जाने के साथ ही कुंभ समाप्त हो गया। हरिद्वार में कुंभ के लिए गए टेंट-तंबू लगे हटा लिए गए। किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि 21वीं सदी में होने वाला कुंभ किसी महामारी का शिकार हो जाएगा। इस बार कुंभ हुआ या नहीं हुआ, यह कई तरह से बहस का विषय है। आम लोगों और श्रद्धालुओं की निगाह से देखें तो उन्हें नहीं पता कि कुंभ हुआ है, लेकिन सरकार और अखाड़ों-संतों की माने तो कुंभ अब संपन्न हो गया है।
वर्ष 2017 में उत्तराखंड में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ही कुंभ की तैयारियों को लेकर चर्चा शुरू हो गई थी। यह कुंभ इसलिए भी विशेष था क्योंकि इसका आयोजन 12 की बजाय 11 वर्ष के अंतराल पर किया जा रहा था। इसके पीछे तकनीकी आधार यह है कि हर बारहवां कुम्भ तिथियों के संयोजन के लिहाज से एक साल पहले यानी 11 साल में आयोजित किया जाता है। दावा किया गया था कि इस 4 महीने के आयोजन को 10 करोड लोगों के आने की संभावना को ध्यान में रखकर तैयारी की जाएगी। इसके लिए करीब 2000 करोड़ के संभावित बजट की चर्चा हुई। उसमें केंद्र से एक बड़ा हिस्सा मांगा गया।
सरकार द्वारा यह दवा भी लगातार किया जाता रहा कि वर्ष 2021 में कुंभ शुरू होने से काफी पहले ही सारी तैयारियां पूर्ण हो जाएंगी। सरकारों और अफसरों द्वारा इस तरह का दावा हर एक कुंभ और अर्धकुंभ से पहले किया जाता है और हम सभी इस बात के गवाह हैं कि कुंभ समाप्त होने के बाद भी कुंभ से जुड़े काम चलते रहते हैं जैसे कि इस बार अभी तक चल रहे हैं। वर्ष 2020 के शुरू में कोरोना संक्रमण के फैलाव के बाद हरिद्वार कुंभ के आयोजन को लेकर दुविधा की स्थिति पैदा होने लगी थी। सरकार और अखाड़ों-संतों के स्तर पर भी कई बार व्यापक चर्चा हुई कि कुंभ को संक्षिप्त रूप में आयोजित किया जाए या इसे पुराने ढंग पर बड़े पैमाने पर आयोजित किया जाए। आखिर तक यह पता नहीं चल पाया कि कुंभ का आयोजन भव्य पैमाने पर हुआ अथवा इसे संक्षिप्त रखा गया।
कुंभ के दौरान ही उत्तराखंड में भाजपा की सरकार के मुखिया को बदल दिया गया और उन्होंने आते ही घोषणा की कि कुंभ में लोगों के आगमन पर किसी तरह की रोक नहीं रहेगी और कुंभ को भव्य स्तर पर आयोजित किया जाएगा। जिस वक्त मुख्यमंत्री द्वारा यह घोषणा की जा रही थी, ठीक उसी वक्त देश में कोरोना की दूसरी लहर शुरू हुई। इस लहर के दौरान जब कुम्भ प्रशासन यह दावा कर रहा था कि अप्रैल महीने में हुए स्नानों में 35 लाख से अधिक श्रद्धालुओं ने पुण्य स्नान किया है तो ठीक उसी वक्त देश में कोरोना के फैलाव का ठीकरा कुंभ के आयोजन पर फोड़े जाने की तैयारी भी हो गई थी। प्रशासन के इन हवा-हवाई दावों के बाद न केवल देश भर के मीडिया बल्कि विदेशी मीडिया ने भी कोरोना फैलाव के लिए कुंभ को जिम्मेदार ठहराया। हालांकि यह बात अलग है कि कोरोना की सेकंड-वेव में हरिद्वार में संक्रमण का प्रतिशत भी कम बना रहा और प्रदेश के अन्य जिलों की तुलना में मौतें भी बेहद कम हुई, लेकिन कुंभ की छवि को जो नुकसान होना था, वह उस प्रचार से हो गया कि भारत में, विशेष रूप से उत्तर भारत में कोरोना के फैलाव के लिए कुंभ का आयोजन जिम्मेदार है।
इस आयोजन से जुड़े रहे अधिकारियों और इसे निकटता से कवर करने वाले मीडियाकर्मियों को बहुत ही स्पष्ट रूप से पता है कि जनवरी से अप्रैल तक की अवधि में हरिद्वार में बहुत कम संख्या में श्रद्धालु कुंभ स्नान के लिए आए। (लोगों को आने से रोके जाने के विरोध में व्यापारियों ने प्रदर्शन तक किया।) स्नानों के दौरान जिसे भीड़ के रूप में देखा और परिभाषित किया जाता रहा है, वह संतो की कुछ हजार की संख्या अवश्य थी। हर की पैड़ी पर इन संतों की भीड़ को मीडिया के एक हिस्से ने खलनायक की तरह प्रस्तुत किया। कुंभ के बारे में नकारात्मक एंगल के साथ खबरें परोस रहे लोगों को उस वक्त बड़ा बल मिल गया, जब अखाड़ों से जुड़े कुछ प्रमुख लोगों के कोरोना संक्रमित होने की बात सामने आई और बाद में कुछ लोग दिवंगत भी हुए। इस मामले में सबसे ज्यादा प्रचार नवगठित किन्नर अखाड़े की आचार्य महामंडलेश्वर के कोरोना संक्रमित होने के कारण हुआ। वे शुरू से ही मीडियापोषित प्रचार के केंद्र में बनी हुई थीं।
मीडिया माध्यमों में बताया गया की कि अखाड़ों में बड़ी संख्या में साधु-संत कोरोना संक्रमण का शिकार हुए और उनकी वजह से देश के अलग-अलग हिस्सों में कोरोना फैल गया। यहां जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वो यह कि कुंभ के आयोजकों की तरफ से एक बार भी ऐसा कोई प्रतिवाद या तथ्यात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई जिससे यह स्थापित हो कि कोरोना के फैलाव के लिए केवल कुंभ को दोष नहीं दिया जा सकता। यदि कुंभ के कारण ही कोरोना फैला है तो फिर हरिद्वार शहर और हरिद्वार जनपद में कोरोना संक्रमण की दर पूरे उत्तराखंड और हरिद्वार से सटे हुए उत्तर प्रदेश के जिलों की तुलना में कम क्यों है ?
अब इस आयोजन के दूसरे पहलुओं पर देखिए। इस कुम्भ पर राज्य सरकार और भारत सरकार द्वारा करीब 500 करोड़ रुपये खर्च किए गए। पूर्व में आयोजित हुए कुंभों में जिस स्तर की प्रशासनिक, मेडिकल, पेयजल, परिवहन, सजावट आदि की व्यवस्था की जाती थी, उसी प्रकार की व्यवस्था इस बार भी की गई। सड़कों-गलियों, पानी की निकासी, बिजली, पार्किंग आदि का काम पहले भी होता था,इस बार भी हुआ, लेकिन जिनके लिए यह ढांचा खड़ा किया गया, वे लोग नहीं आए। अब प्रश्न यह है कि फिर यह 500 करोड़ रूपया खर्च क्यों किया गया ? जबकि कोरोना की सेकंड-वेव में उत्तराखंड का बुनियादी ढांचा, विशेष रूप से मेडिकल सुविधाएं बुरी तरह से अपर्याप्त साबित हुई हैं। अप्रैल के आखिर में अस्पतालों में बुनियादी चिकित्सा सुविधा हासिल करने के लिए पूरे प्रदेश में हाहाकार जैसी स्थिति बन गई।
इस कारण यह सवाल केवल वर्तमान में ही नहीं, बल्कि आने वाले समय में भी हमेशा बना रहेगा कि जिस राज्य में लोगों को प्राथमिक स्तर का उपचार न मिल पा रहा हो, वहां कुंभ जैसे आयोजन पर 500 करोड़ रुपये खर्च करने का औचित्य क्या था ? सरकार कह सकती है कि 2020 के आखिर में कोरोना संक्रमण की दर नीचे आने लगी थी इसलिए उसे भरोसा था कि कोरोना अप्रैल तक काफी हद तक सीमित हो जाएगा और केंद्र द्वारा निर्धारित एसओपी के अनुरूप इस आयोजन को पूर्ण कर लिया जाएगा। उत्तराखंड सरकार कुंभ के आयोजन को एक बड़े इवेंट के रूप में प्रस्तुत करने की तैयारी कर रही थी। यह सभी को पता है कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था मूलतः पर्यटन और वह भी धार्मिक पर्यटन पर आधारित है। यदि सरकार के अनुमान के अनुरूप 4 महीने की इस अवधि में 10 करोड़ श्रद्धालु उत्तराखंड आ जाते तो इससे प्रदेश की अर्थव्यवस्था को 10 हजार करोड या इससे भी अधिक का लाभ होता। इसी को ध्यान में रखकर सरकार इतने बड़े आयोजन की तैयारी में थी।
अब इसमें कोई संदेह नहीं कि अनुमान लगाने में कई स्तरों पर गलतियां हुई। यह भी कहा जा सकता है कि सरकार अनावश्यक रूप से अखाड़ों-संतों के दबाव में थी। इसी दबाव के चलते वह कोई ठोस फैसला नहीं कर पाई। सरकार की इस दुविधा को उत्तराखंड हाई कोर्ट ने कई बार झकझोरने की कोशिश की, लेकिन अधिकारियों ने उस वक्त तक हाईकोर्ट के निर्देशों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी, जब तक हाईकोर्ट ने अवमानना का डंडा नहीं दिखाया। इसके बावजूद सारे निर्देश यथावत लागू हो गए हों, ऐसा नहीं हुआ। हाई कोर्ट का स्पष्ट निर्देश था की कुंभ-काल के दौरान हरिद्वार में प्रतिदिन 50 हजार लोगों की टेस्टिंग की जाएगी, लेकिन एक भी दिन ऐसा नहीं हुआ, जब इस संख्या की दो तिहाई टेस्टिंग भी हो पाई हो। अलबत्ता सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले से बचने का एक रास्ता निकाल लिया कि कुंभ का नोटिफिकेशन जनवरी में करने की बजाय अप्रैल के शाही स्नान से कुछ ही दिन पहले किया गया।
अधिकारियों द्वारा तर्क दिया गया कि अभी कुंभ का नोटिफिकेशन नहीं हुआ है इसलिए हाई कोर्ट के निर्देश अभी लागू नहीं होते। जब सरकार द्वारा कुंभ का नोटिफिकेशन किया जाएगा, उस दिन से हाई कोर्ट के निर्देश लागू होंगे। तकनीकी तौर पर तो यह बात सही है, लेकिन यह सोच कुंभ जैसे विराट आयोजन से जुड़ी खामियों की ओर इशारा करती है। विगत कई दशकों से हरिद्वार कुंभ की अवधि लगभग 4 महीने होती रही है। बहुत लंबे समय बाद पहली बार ऐसा हुआ जब हरिद्वार कुंभ एक महीने से भी कम अवधि में सिमट गया। 13-14 अप्रैल के शाही स्नान के बाद पूरे देश में जिस गति से कोरोना का संक्रमण फैला, उससे प्रदेश सरकार भी मजबूर हुई कि कुंभ को आनन-फानन में समेट दिया जाए। इस स्नान के बाद शैव और वैष्णव अखाड़ा में मतभेद पैदा हो गए। शैव अखाड़ों ने कुंभ को विसर्जित करने पर जोर दिया, जबकि वैष्णव अखाड़े अप्रैल के आखिर में होने वाले शाही स्नान तक कुंभ जारी रखने पर अड़े रहे। अखाड़ों के बीच के इस मतभेद पर सरकार ने लगभग खामोशी अख्तियार किए रखी। इसी बीच प्रधानमंत्री ने अपने मन की बात कार्यक्रम में कुंभ के बचे हुए स्नानों को सांकेतिक तौर पर आयोजित करने की बात कही। इसके बाद यह तय हुआ कि जैसे भी हो, कुंभ अप्रैल के आखिर तक चलता रहेगा।
अब कुंभ खत्म हो गया है। टेंट-तंबू और सज-धज, सब उखड़ गई है। हर एक कुंभ के बाद जो सन्नाटा और वीरानापन पसरता है, वह इस बार कुछ ज्यादा ही बड़े रूप में पसरा हुआ दिख रहा है। वजह स्पष्ट है कि कुंभ ने इस बार अपनी आध्यात्मिक और धार्मिक ऊर्जा को उस रूप में छुआ ही नहीं जिसके लिए लोग 12 साल प्रतीक्षा करते हैं।

 

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